यह मालवीय माता जी का प्रतिरूप है। इस मंदिर को पारियो का बाग भी कहा जाता है। यह उद्यान 17 वीं शताब्दी के मध्य तक फला-फूला। राजा मान सिंह (1589-1614 A.D.) के पुत्रों में से एक श्याम सिंह के आदेश पर यह सुखद उपवन बनाया गया था। इस कारण से इसे श्याम बेग के नाम से जाना जाता था। यह उद्यान 17 वीं शताब्दी के मध्य तक विकसित हुआ। बगीचे में फलों और फूलों के पेड़ों की कई वेनेटी हैं। नियत समय में इसमें झाड़ियाँ लगाई गईं। दो कदम कुएँ और एक बगीचे में अच्छी तरह से पानी की आपूर्ति। 17 वीं शताब्दी के अंत में कवि नीलकांत ने अपने छंद के संग्रह में "गंडक" नामक गीत का वर्णन किया हैरमा भी करते हैं।
आमेर मावठा के पास परियों का बाग में महामाया सप्त देवियों के स्वरूप में विराजमान सात्यूं बहणों को सारा ढूंढाड़ पूजने आता है। बच्चों और नव विवाहित वर-वधुओं की खुशहाली के लिए सातों बहनों और उनके भाई भैरों के ढोक लगती है। खास बात यह भी है कि माता के दरबार में सातों देवियों को आसमान से उतरी परियां मानकर लोग मन्नत मांगने आते हैं। बाग का मूल नाम श्याम बाग है लेकिन मुस्लिम समुदाय में परियों के बाग के रूप में यह मशहूर है। आमेर नरेश मानसिंह प्रथम के पुत्र बेटे श्याम सिंह ने कुआं, बावड़ी बनाकर अपने नाम से बाग बनवाया था। सत्रहवीं सदी के मध्य में कवि नीलकंठ ने 'गुण दूत' ग्रंथ में व ढूंढाड़ के कवियों ने श्याम बाग, सात बहनों व उनके प्रिय भाई भैरोंजी का बखान किया है।
मानसिंह प्रथम भी अकबर के युद्ध अभियान में जाने के पहले सातों बहनों और भैरोंनाथ को ढोक देते। लोग इसे सात महामाया मानकर मावलियाजी भी कहते हैं। गुजरात के रावल परिवार के महंत सत्यनारायण रावल (80) के मुताबिक भगवान कृष्ण की सात सखियों की गहरी भक्ति से खुश कृष्ण ने उन सखियों को कलयुग में सातों बहनों के नाम से पूजने का वरदान दिया था। है। बहनों की रक्षा के लिए भैरवनाथ आगे विराजे हैं। आमेर में सातों बहनों का एक मंदिर खेड़ी दरवाजे के पास भी है। इसके अलावा गुजरात के खोडियार, प्रदेश के सामोद, इन्द्रगढ़, नवलगढ़ व बगरू में भी सातों बहनों के मंदिर हैं।है। इन मंदिरों में विवाह के बाद जोड़े की धोक लगती है । सातों जात के लोग अपने बच्चों के जात जडूले उतारते हैं। देवर्षि कलानाथ शास्त्री के मुताबिक तांत्रिक परम्परा में सप्त देवियों के पूजन का विधान है। सावण भादवे में होने वाले मौसमी रोगों से बचाव व उनकी खुशहाली की कामना से माता के जात जडूला उतारने की पुरानी परम्परा है।
शिशुओं को चांदी व तांबे की पातड़ी भी गले में पहनाते हैं। मनोकामना पूरी होने पर पूआ, बाटी, बाकला, पापड़ी, हलुआ आदि व्यंजनों की कड़ाई का भोग लगाते है। दर्शन के बाद जाते समय पीछे मुड़कर नहीं देखने का पुराना विधान है। किवदंती है कि भादवे में यहां बने कलात्मक जल कुंड में स्नान करने सातों बहनें परियां बनकर आसमान से नीचे उतरती है। नवरात्रों के अलावा बैसाख व भादवे में बड़े मेले भरते हैं। भादवे में सात्यू बहनों के मंदिर की पैदल परिक्रमाएं भी आती हैं। इसमें महिलाओं की संख्या अधिक रहती है। चांदपोल से सामोद के लिए भी पदयात्रा निकलती है। गोपीनाथ जी महिला मंडली और अनेक रास मंडलियां शामिल होती हैं। इतिहासकार नंद किशोर पारीक ने लिखा है कि आमेर नरेश मानसिंह ने सैनिक अभियान में विजय होने पर इन्द्रगढ़ में भी मंदिर बनवाया। बीमार माधोसिंह द्वितीय को उनकी पड़दायत रुपराय इन्द्रगढ़ माता के ले गई। पड़दायत के सुझाव पर महाराजा धूणे की राख में भी लेट गए। सात्यू बहनों के गीत में महिलाएं मानसिंह के काबुल और कंधार की जीत का बखान करती हैं।
1. माघ का मेला। 2. बैषाख का मेला। 3. भादवा का मेला| 4. चैत्र नवरात्रा मेला| 5. षारदीय नवरात्रा|
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